समय बदलने के साथ-साथ मनुष्य की जीवन जीने की परिभाषा भी बदलती जा रही है, जिसके कारण आज मनुष्य कई प्रकार की समस्याओं से घिरता जा रहा है। हमारे जीवन में आये दिन अलग-अलग प्रकार लग समस्यायें आते रहती हैं, लेकिन हम फिर भी समझ नहीं पा रहे हैं कि यह सब हमारे द्वारा किये गये प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ का ही कारण है, जिसका खामियाजा हमें और अन्य लोगों को झेलना पड़ रहा है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाली पीढ़ियों को इससे भी भयावह दिन देखने पड़ सकते हैं। इसलिये हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर चलने की आवश्यकता है। पिछले दो-चार महीनों से प्रकृति कुछ हद तक संतुलित हुई है, लेकिन कुछ दिनों बाद जब सब कुछ पहले का जैसा हो जायेगा तो फिर से प्रकृति का संतुलन बिगड़ता नजर आयेगा और फिर एक दिन ऐसा आयेगा कि उसका फल भी हमें ही प्राप्त होगा। यदि हम प्रकृति को संतुलित रखते हैं तो हमें अच्छा फल मिलेगा नही तो बुरा।
प्रकृति किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं करती। इसके द्वार सबके लिए समान रूप से खुले हैं, लेकिन जब हम प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ करते हैं तब उसका गुस्सा भूकम्प, सूखा, बाढ़, सैलाब, तूफान के रूप में आपदा बनकर हमारे ऊपर बरसता है। प्रकृति और मनुष्य के बीच बहुत गहरा संबंध है, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मनुष्य के लिए धरती उसके घर का आंगन, आसमान छत, सूर्य-चांद-तारे दीपक, सागर-नदी पानी के मटके और पेड़-पौधे आहार के साधन हैं। प्रकृति की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह अपनी चीजों का उपभोग स्वयं नहीं करती। जैसे-नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती, पेड़ अपने फल खुद नहीं खाते, फूल अपनी खुशबू पूरे वातावरण में फैला देते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि प्रकृति किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं करती, लेकिन मनुष्य जब प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ करता है तो प्रकृति का संतुलन भी बिगड़ जाता है, जिसके बाद वह अपना रौद्र रूप दिखाकर समय-समय पर सूखा, बाढ़, सैलाब, तूफान के रूप में व्यक्त करते हुए मनुष्य को सचेत करती है।
जब प्रकृति में असंतुलन की स्थिति होती है, तब आपदायें आती हैं जिसके कारण विकास एवं प्रगति बाधक होती है। प्राकृतिक आपदाओं के अतिरिक्त कुछ विपत्तियाँ मानवजनित भी होती हैं। प्राकृतिक आपदायें जैसे- भूकम्प, सुनामी, भूस्खलन, ज्वालामुखी, सूखा, बाढ़, हिमखण्डों का पिघलना आदि हैं। भारत की प्राकृतिक संरचना में पर्वतों, नदियों, समुद्रों आदि का बहुत महत्त्व है। इनसे असंख्य लोगों की आजीविका चलती है। लेकिन जब प्रकृति में असंतुलन की स्थिति होती है, तब आपदायें आती हैं, इनके आने से प्रगति बाधित होती है और परिश्रम तथा यत्न पूर्वक किये गये विकास कार्य नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य सदियों से प्रकृति की गोद में फलता-फूलता रहा है। पर्यावरण के बिना हमारा अस्तित्व सम्भव नहीं है। प्रकृति हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसके बारे में हमें अपने बच्चों को बताना चाहिए।
हम सबसे सुंदर ग्रह पर निवास करते है, जी हाँ धरती, जो हरियाली से युक्त बेहद सुंदर और आकर्षक है। कुदरत हमारी सबसे अच्छी साथी होती है जो हमें धरती पर जीवन जीने के लिये सभी जरुरी संसाधन उपलब्ध कराती है। प्रकृति हमें पीने को पानी, सांस लेने को शुद्ध हवा, पेट के लिये भोजन, रहने के लिये जमीन, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे आदि हमारी बेहतरी के लिये उपलब्ध कराती है। हमें बिना इसके पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़े इसका आनन्द लेना चाहिये। हमें अपने प्राकृतिक परिवेश का ध्यान रखना चाहिये। हमारे सबसे आस-पास सुंदर और आकर्षक प्रकृति है जो हमें खुश रखती है और स्वस्थ जीवन जीने के लिये एक प्राकृतिक पर्यावरण उपलब्ध कराती है। बढ़ती भीड़ में हम प्रकृति का सुख लेना और अपने को स्वस्थ रखना भूल गये है। हम शरीर को फिट रखने के लिये तकनीक का प्रयोग करने लगे है। जबकि ये बिल्कुल सत्य है कि प्रकृति हमारा ध्यान रख सकती है और हमेशा के लिये फिट रख सकती है। नदियों और तालाबों के उद्धार के बिना प्रकृति की रक्षा बेमानी है। नदियाँ नाला बनती जा रही हैं और धरती प्रदूषित हो रही है। अगर समय रहते हम नहीं चेते तो बुरे दिन के लिए तैयार रहना होगा।
मनुष्य की मानसिकता के साथ पर्यावरण का एक नजदीकी रिश्ता है। प्राचीन समय की सभ्यताओं में प्रकृति को सम्मान के भाव से देखा गया है। पहाड़, नदियाँ, वृक्ष, सूर्य, चँद्र आदि सम्मान के योग्य हैं, जब हम प्रकृति और अपनी आत्मा के साथ अपने संबंध से दूर जाने लगते हैं, तब हम पर्यावरण को प्रदूषित करने लगते हैं और पर्यावरण का नाश करने लगते हैं। हमे उस प्राचीन व्यवस्था को पुनर्जीवित करना होगा जिससे की प्रकृति के साथ हमारा संबध सुदृढ़ बनता है। आज के जगत में ऐसे कई व्यक्ति हैं जो कि लालचवश, जल्द मुनाफा और जल्द नतीजे प्राप्त करना चाहते हैं। उनके कृत्य जगत के पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते हैं। केवल बाहरी पर्यावरण ही नहीं, वे सूक्ष्म रूप से अपने भीतर और अपने आस-पास के लोगों में नकरात्मक भावनाओं का प्रदूषण भी फैलाते हैं। ये नकरात्मक भावनायें फैलते-फैलते जगत में हिंसा और दुख का कारण बनती हैं।
आज जिस स्तर पर पर्यावरण का शोषण एवं विदोहन हो रहा है उससे मनुष्य व पर्यावरण के मध्य संबंध काफी जटिल हो गया है। जहाँ एक ओर पर्यावरण संरक्षण के प्रति जनचेतना का स्तर काफी कम है। वहीं दूसरी ओर पर्यावरण विदोहन का प्रभाव मनुष्य पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगा है। आज दुनिया के कई देशों में भूमिगत जल-स्तर के नीचे जाने, सूखे, कृषि और उद्योग की ओर से पानी की माँग, प्रदूषण और गलत जल प्रबन्धन जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है। कोई भी सम्पदा कितनी ही अधिक क्यों न हो, यदि उसका संरक्षण न किया जाये तो एक दिन उसे समाप्त होने से कोई नहीं रोक सकता। प्रकृति के साथ लगातार हो रही छेड़-छाड़ के चलते आज दिन-प्रतिदिन तापमान में भी वृद्धि होती जा रही है। प्रकृति का संतुलन बिगड़ने कारण प्राकृतिक आपदायें आने का हर समय भय बना रहता है। प्राकृतिक आपदायें कुछ ऐसी होती हैं जिनको हम एकदम से उसी समय नहीं रोक सकते हैं। आपदा जनसँख्या के सहयोग की क्षमता पर निर्भर करती है।
धरती पर हमेशा जीवन के अस्तित्व को संभव बनाने के लिये हमारी प्रकृति द्वारा प्रद्त्त संपत्ति के गिरते स्तर को बचाने की जिम्मेदारी हमारी है। अगर हम लोग अपने कुदरत को बचाने के लिये अभी कोई कदम नहीं उठाते है तो ये हमारी आने वाली पीढ़ी के लिये खतरा उत्पन्न कर देगा। हमें इसके महत्व और कीमत को समझना चाहिये इसके वास्तविक स्वरुप को बनाये रखने की कोशिश करनी चाहिये। जीवन में अपने स्वार्थ को किनारे रखकर प्रकृति और अपने आने वाली पीढ़ी के बारे में भी सोचने की आवश्यकता आज के दौर में सभी को है, यदि हम अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति को ही नुकसान पहुँचायेंगे तो आने वाली पीढ़ी को दुःख के अलावा और कुछ भी धरोहर के रूप में नहीं दे पायेंगे, इसलिए जीवन के सुखों के साथ-साथ हमें प्रकृति संरक्षण के लिए भी सोचने की आवश्यकता है, जब प्रकृति सही-सलामत रहेगी तो जीवन की खुशियाँ भी अवश्य प्राप्त होंगी। आज सभी को यह विचार करने की आवश्यकता है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी का भविष्य बना रहे हैं या फिर उनका भविष्य अंधकारमय बना रहे हैं, अवश्य सोचें और प्रकृति और अपना तथा अपने भविष्य का संरक्षण करें।