बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली के दौरे पर आए तो उसे लेकर कई तरह की चर्चाएं हुईं। इसमें सबसे खास चर्चा उनके अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि पर जाने से हुई। वाजपेयी की सरकार में नीतीश कुमार मंत्री रहे थे और हमेशा उनकी तारीफ करते रहते हैं। वे उस समय की भाजपा की तारीफ करते हैं और अभी की भाजपा की आलोचना करते हैं। दूसरी ओर बिहार में उनकी सहयोगी पार्टियां यानी राजद, कांग्रेस और लेफ्ट तीनों पहले वाली भाजपा के भी आलोचक रहे हैं। हालांकि नीतीश को इसकी परवाह नहीं है। उन्होंने यह मैसेज दिया कि उनको भाजपा से दिक्कत नहीं है, बल्कि भाजपा के मौजूदा नेतृत्व से दिक्कत है। उनका यह संदेश सहयोगी पार्टियों के है तो साथ ही बिहार की जनता के लिए भी है। उन्होंने मतदाताओं को भी एक मैसेज दिया है।
असल में नीतीश कुमार की यह खासियत रही है कि जब वे भाजपा के साथ थे तब भी कुछ मुस्लिम वोट उनको मिलते थे। उनकी छवि सांप्रदायिक नहीं थी। और अब जब वे राजद और कांग्रेस के साथ हैं तब भी उनकी छवि हार्डकोर सेकुलर नेता वाली नहीं है। यानी हिंदुत्व की विचारधारा वाले मतदाताओं का भी उनको समर्थन मिल सकता है। अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि पर जाकर उन्होंने मतदाताओं को यही मैसेज दिया है कि वे भाजपा से ज्यादा दूर नहीं हैं। सहयोगी पार्टियों को नीतीश ने यह मैसेज दिया है कि उनकी अनदेखी नहीं होनी चाहिए। ध्यान रहे 31 अगस्त और एक सितंबर को मुंबई में विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ‘इंडिया’ की बैठक होने वाली है। उसमें 11 सदस्यों की एक समन्वय समिति बनेगी। नीतीश ने चूंकि इस गठबंधन की पहली की थी इसलिए वे चाहते हैं कि उनको ‘इंडिया’ का अध्यक्ष या समन्वयक बनाया जाए। उस बैठक से ठीक पहले दिल्ली आकर नीतीश ने नेताओं पर दबाव बना दिया है। वे बार बार यह भी मैसेज बनवा रहे हैं कि उनकी छवि बाकी नेताओं के मुकाबले ज्यादा स्वीकार्य है इसलिए उनको आगे करना चाहिए।