विनीता पंवार की कलम से मातृ दिवस पर ‘ माँ ‘ के सम्मान में दो शब्द

‘ माँ ‘

इस दुनिया में एक माँ ही है जो हमें नौ महीने ज्यादा  जानती  है।।

पूछा था मैंने खुदा से, जन्नत का पता।
अपनी गोद से उतारकर खुदा ने,
माँ की बाहों में सुला दिया।।
खुदा की जन्नत को, दुनिया में देखना चाहते हो तो।
सिर्फ एक बार माँ की गोद में सोकर देखना ।।

मैं रात भर जन्नत की सैर करता रहा यारो।                                    सुबह आँख खुली तो देखा, सर माँ के कदमों में था।।
घर में ही होता है मेरा तीरथ।
जब नजर मुझे मेरी माँ आती है।।
जिसको बसना है जन्नत में, वो बेशक जाकर बसे।
अपना तो आशियाना, माँ के दिल में है।।

फुर्सत मिले तो कभी माँ का हाल भी पूछ लिया करो दोस्तो।
क्यूॅकि उनके सीने में दिल की जगह तुम रहते हो।।
माँ जब भी दुआयें मेरे नाम करती है।
रास्ते की हर ठोकरें, मुझे सलाम करती हैं।।
लेता ही रहा दुआयें, झोली भर-भर के मैं।
माँ का ही आँचल था, जो कभी खाली ना हुआ।।

मुश्किल राहों में भी, आसान सा ये सफर लगता है।
शायद ये मेरी माँ की, दुआवों का असर लगता है।।
आज लाखों रूपये बेकार हैं, वो एक रूपये के सामने।
जो स्कूल जाते समय माँ हमें दिया करती थी।।

हमें तो सुख में साथी चाहिये, दुःख में तो हमारी माँ ही अकेली काफी हैं।
वो भी क्या वक्त था, जब हमारी सारी गलतियाँ माँ के तमाचों से सुधर जाती थी।।

गिन लेती है दिन, बगैर मेरे गुजारे हैं कितने।
भला कैसे कह दूँ, माँ अनपढ़ है मेरी।।
सहनशीलता पत्थर सी, और दिल मोम सा।
ना जाने किस मिट्टी की बनी होती है माँ।।
मुझे अपनी दुनिया, अपनी कायनात को।
एक लफ्ज में बयाँ करनी हो, तो वह लफ्ज है ‘माँ’।।

ऊपर जिसका अंत नहीं, उसको आसमां कहते हैं।
जहां में जिसका अंत नहीं, उसे ‘माँ’ कहते हैं।।

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