अजीत द्विवेदी
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दावा किया है कि महंगाई जल्दी ही कम हो जाएगी। उनके कहने से पहले से कई आर्थिक जानकार यह दावा कर रहे थे कि महंगाई सीजनल है और जल्दी ही कम हो जाएगी। वित्त मंत्री के जल्दी महंगाई कम होने के बयान की एक दूसरी आर्थिक वजह भी थी। उन्होंने यह बात कहते हुए भारतीय रिजर्व बैंक पर परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप से दबाव भी बनाया कि वह नीतिगत ब्याज दर यानी रेपो रेट में बढ़ोतरी नहीं करे। अभी पिछले कुछ दिन से मौद्रिक समीक्षा नीति की बैठकों में नीतिगत ब्याज दर को स्थिर रखा जा रहा है। लेकिन जुलाई के महीने में खुदरा महंगाई दर रिजर्व बैंक की तय सीमा से निर्णायक रूप से ऊपर जाने के बाद यह आशंका जताई जा रही है कि रेपो रेट में बढ़ोतरी हो सकती है।
तभी वित्त मंत्री ने पहले ही अपना दांव चलते हुए कहा कि नीतिगत ब्याज दर में बढ़ोतरी से अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने की प्रक्रिया प्रभावित होगी यानी विकास दर कम होगी। सो, एक तरफ रिजर्व बैंक है, जिसे खुदरा महंगाई दर को छह फीसदी से नीचे रखने की अपनी जिम्मेदारी निभानी है तो दूसरी ओर वित्त मंत्री हैं, जिनको विकास दर की रफ्तार की चिंता करनी है। यह दोनों संस्थाओं के बीच सनातन खींचतान है।
अब अंतर यह आ गया है कि महंगाई स्थायी हो गई है और इसके कई कारण हैं, जिनमें से एक कारण खाने-पीने की चीजों, खास तौर से सब्जियों की कीमतों में होने वाली बढ़ोतरी भी है। दुर्भाग्य से भारत में हमेशा खाद्यान्न की कीमतों को ही महंगाई के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है और हर व्यक्ति का बयान उसको ध्यान में रख कर ही दिया जाता है। खाने-पीने की चीजों और खास कर सब्जियों को महंगाई का जिम्मेदार ठहराना एक किस्म की साजिश भी है, जिसकी आड़ में बाकी चीजों की महंगाई छिप जाती है। अनाज और सब्जियों को जब महंगाई के नैरेटिव में विलेन बनाया जाता है तो उसका एक बड़ा फायदा यह होता है कि एक वर्ग स्वाभाविक रूप से किसानों के नाम पर इसके बचाव में आ जाता है, जिससे पूरी बहस की दिशा मुड़ जाती है। यह कहा जाने लगता है कि कीमत बढऩे का फायदा किसान को हो रहा है और इस वजह से लोगों के पेट में दर्द में हो रहा है।
लेकिन असल में ऐसा नहीं होता है। अनाज और सब्जियों की कीमत में बढ़ोतरी का फायदा आम किसान को नहीं मिलता है। उसकी फसल तो पहले ही आढ़तिए खरीद चुके होते हैं। इनकी कीमतों में बढ़ोतरी भी बाजार का खेल है, जिसमें बड़े कारोबारी और थोड़े से बड़े किसान शामिल होते हैं। अगर सरकार विनिर्मित वस्तुओं की तरह या खाने-पीने की डिब्बाबंद वस्तुओं की तरह खुले अनाज और सब्जियों की अधिकतम कीमत यानी एमआरपी निर्धारित कर दे तब किसान को फायदा संभव है। लेकिन ऐसा नहीं किया जाता है। इससे जाहिर है कि यह बहस किसान के हित की नहीं होती है। इससे दूसरे लोगों का हित पूरा किया जाता है।
तभी खाने-पीने की वस्तुओं यानी अनाज और सब्जियों की कीमतों में कमी आने के बावजूद महंगाई कम नहीं होने वाली है। हो सकता है कि आंकड़ों में अगले दो महीने में यह बताया जाए कि खुदरा महंगई कम होकर रिजर्व बैंक की छह फीसदी की सीमा के दायरे में आ गई है लेकिन उससे आम लोगों को ज्यादा राहत नहीं मिलने वाली है। इसका कारण यह है कि खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतें भी खुले बाजार में बहुत कम नहीं होने वाली हैं। उनकी एक न्यूनतम कीमत तय हो चुकी है। टमाटर की कीमत ढाई सौ रुपए किलो पहुंच गई, जिसमें कमी आ रही है लेकिन कम होकर इसकी खुदरा कीमत इसके दस फीसदी के बराबर यानी 25 रुपए किलो पर नहीं आने वाली है। इसी तरह धीरे धीरे ही सही लेकिन बढ़ते बढ़ते दालों, मसालों, तेल, चावल, आटा आदि की कीमत जहां तक पहुंच गई वहां से नीचे नहीं आने वाली है। इसलिए महंगाई आंकड़ों में जैसी दिखे, वह आम लोगों को चुभने वाली रहेगी। इसका कारण यह भी है कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी सीपीआई में 45.9 फीसदी हिस्सा खाने-पीने की चीजों की कीमत का होता है। इसी के आधार पर खुदरा महंगाई का आकलन होता है। इसके अलावा ईंधन का हिस्सा 6.8 फीसदी और कोर सेक्टर का हिस्सा 47.3 फीसदी होता है।
जुलाई में खुदरा महंगाई रिजर्व बैंक की ओर से तय छह फीसदी की सीमा पार कर 7.4 फीसदी पहुंच गई तो उसके पीछे कारण यह रहा कि खाने-पीने की वस्तुओं की महंगाई दर 11.5 फीसदी पहुंच गई, जो जून में 6.5 फीसदी थी। यानी इसमें पांच फीसदी की बढ़ोतरी हुई तो खुदरा महंगाई आसमान पर पहुंच गई। जुलाई के महीने में ईंधन की महंगाई दर 3.6 और कोर सेक्टर की महंगाई दर 4.9 फीसदी रही। खाने-पीने की चीजों में भी सब्जियों की महंगाई जून में 0.9 फीसदी थी, जो जुलाई में 37 फीसदी हो गई। खुदरा महंगाई पर इसका सबसे ज्यादा असर रहा। इसमें और बारीक आंकड़ों में जाएंगे तो हो सकता है कि यह पता चले कि टमाटर और एक-दो दूसरी सब्जियों की कीमतों की वजह से ऐसा हुआ। ऐसे में सवाल है कि पूरे साल अगर किसी न किसी सब्जी या अनाज की कीमत ऊंची रही तो खुदरा महंगाई दर कैसे कम होगी?
मिसाल के तौर पर टमाटर के बाद प्याज की कीमतें बढऩे की आशंका है, जिसे देखते हुए केंद्र सरकार ने इसके निर्यात को सीमित किया और निर्यात पर 40 फीसदी शुल्क लगा दिया। बाद में सरकार ने 24 रुपए किलो की दर से दो लाख टन अतिरिक्त प्याज खरीदने का फैसला किया। प्याज के बाद हो सकता है कि किसी और कृषि उत्पाद की कीमत में बढ़ोतरी हो जाए। ऐसा इसलिए हो सकता है कि मानसून इस बार बहुत खराब रहा है और अगस्त का महीना सूखा गया है, जिससे खरीफ की फसल पर बड़ी मार पड़ी है। धान की खेती वाले इलाकों में पैदावार कम होगी, जिससे चावल की कीमत बढ़ सकती है। खरीफ का सीजन शुरू होने के साथ ही इसकी आशंका शुरू हो गई थी, जिसके बाद गैर बासमती चावल के निर्यात पर रोक लगा दी गई थी। पिछले साल इसी तरह गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगाई गई थी।
इस तरह की नीतियों के दो खतरे हैं। पहला तो इससे दुनिया में देश की साख बिगड़ती है और दूसरे, इसका फायदा न तो किसानों को होता है और न उपभोक्ता को होता है। सो, सरकार को नीतिगत स्थिरता और निरंतरता पर ध्यान देना चाहिए। किसान और उपभोक्ता दोनों के हितों को ध्यान में रखते हुए कम अवधि की और लंबी अवधि की योजना बनानी चाहिए। अनाज और सब्जियों के पीछे पडऩे की बजाय विनिर्मित उत्पादों और ईंधन के ऊपर ध्यान देना चाहिए। डिब्बाबंद खाने-पीने की चीजों की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। पैकिंग में वजन कम किया गया और कीमत बढ़ाई गई है, जिसे स्रिंक्फलेशन नाम दिया गया है। इसी तरह एफएमसीजी उत्पादों की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कम कीमत के बावजूद भारत में ईंधन की कीमत आसमान छूती रही। डीजल की कीमतें कई बरसों से पेट्रोल की कीमत के बराबर पहुंची है। ईंधन और बेतहाशा टोल वसूली से माल ढुलाई महंगा हुआ है। यह किसी भी उत्पाद की कीमत में सबसे बड़ा फैक्टर बन गया है। किसान के खेत में अनाज व सब्जियां सस्ती हैं फिर भी उन्हें उपभोक्ता तक पहुंचाना इसलिए महंगा हो गया है क्योंकि ईंधन महंगा है, भारी भरकम टोल वसूली है और कारोबारियों का लालच है, जिसकी वजह से महंगाई को ग्रीडफ्लेशन भी नाम दिया जा रहा है।
ईंधन और टोल के अलाव और भी कई फैक्टर हैं, जिनकी वजह से महंगाई की परिघटना स्थायी रहने वाली है। उनमें एक मौसम है। जलवायु परिवर्तन की वजह से मौसम का अतिरेक हर जगह देखने को मिल रहा है। भारत जैसे सिंचाई के लिए मानसून पर निर्भर रहने वाले देश में अगर समय से बारिश नहीं होती है या सामान्य बारिश नहीं होती है और गरमी व सर्दी दोनों बहुत होते हैं तो फसल खराब होगी। इसी तरह अंतरराष्ट्रीय हालात के कारण दुनिया की आपूर्ति शृंखला बिगड़ी रहने वाली है। मिसाल के तौर पर डेढ़ साल से रूस व यूक्रेन का युद्ध चल रहा है और चीन की विस्तारवादी नीतियों के कारण ताइवान सहित कई इलाकों में तनाव बना हुआ है। इसका असर सप्लाई चेन पर होगा। सो, केंद्रीय बैंक की ब्याज दर हो, मानसून की अनिश्चितता हो, क्लाइमेट चेंज हो, सप्लाई चेन की समस्या हो या कारोबारियों का लालच हो या कोई और कारण हो महंगाई अब स्थायी तौर पर बनी रहने वाली है।