गुरू पूर्णिमा आषाढ़ मास की पूर्णिमा को कहते हैं। इस दिन गुरू का पूजन किया जाता है। गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन स्कूल, कॉलेजों में गुरुओ, शिक्षकों को सम्मानित किया जाता है। उनके सम्मान में सभी लोग भाषण देते है, गायन, नाटक, चित्र, व अन्य प्रतियोगितायें आयोजित की जाती है। पुराने विदार्थी स्कूल, कॉलेज में आकर अपने गुरुजन को उपहार भेंट करते है और उनका आशीर्वाद लेते है।जीवन में माता-पिता के बाद गुरू को अहम स्थान दिया गया है। गुरू ही है जो हमें ज्ञान के भंडार से रूबरू कराते हैं। शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक। गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है। अर्थात दो अक्षरों से मिलकर बने ‘गुरु’ शब्द का अर्थ – प्रथम अक्षर ‘गु का अर्थ- ‘अंधकार’ होता है जबकि दूसरे अक्षर ‘रु’ का अर्थ- ‘उसको हटाने वाला’ होता है। अर्थात् अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ‘गुरु’ कहा जाता है। इस दिन ही भगवान गौतम बुद्ध ने सारनाथ में अपना पहला उपदेश दिया था। इस दिन ही भगवान शिव ने सप्तऋषियो को योग का ज्ञान दिया था और प्रथम गुरु बने थे। गुरु का हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। गुरु वह है जो अज्ञान का निराकरण करता है अथवा गुरु वह है जो धर्म का मार्ग दिखाता है। गुरू को अपनी महत्ता के कारण ईश्वर से भी ऊँचा पद दिया गया है। गुरू को शास्त्रों में ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरू को ब्रह्मा का दर्जा इसलिये दिया गया है क्योंकि वह अपने शिष्य को नये ज्ञान से भरकर नया जन्म देते हैं। गुरू को विष्णु भी कहा गया है, क्योंकि गुरू एक तरह से अपने शिष्य की रक्षा भी करते हैं और गुरू को ही भगवान शिव अर्थात महेश भी कहा गया है, क्योंकि जब शिष्य में किसी प्रकार के दोष आ जाते हैं, तो उनको दूर भी गुरू ही करते हैं।
इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं, न अधिक गर्मी न अधिक सर्दी, इसलिये इस मौसम को अध्ययन के लिये उपयुक्त माना गया है। जिस प्रकार से गर्मी से आहत जमीन को बारिश से शीतलता मिलती है, ठीक उसी प्रकार ज्ञान के मार्ग से भटक गये शिष्यों को गुरू चरणों से ज्ञान प्राप्त कर शांति, ज्ञान और भक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। गुरू पूर्णिमा के इस दिन को महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों की भी रचना की थी। इस कारण उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरू भी कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरू पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। इस दिन भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे। गुरू तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। गुरू की महिमा हमारे जीवन में इतनी अधिक है कि यदि गुरू न हो तो सभी का जीवन अंधकार में डूब जायेगा। ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, लेकिन गुरू के लिये कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका है। गुरू की महत्ता को सभी धर्मों और सम्प्रदायों ने माना है। प्रत्येक गुरू ने दूसरे गुरूओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है। भारत के बहुत से संप्रदाय केवल गुरूवाणी के आधार पर ही कायम हैं। भारतीय संस्कृति के वाहक शास्त्रों में गुरू का अर्थ अंधकार या मूल अज्ञान का निरोधक अर्थात अंधकार को हटाकर जीवन में प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ही गुरू कहा जाता है। यदि हम अपने गुरूओं का सम्मान करते हैं तो जीवन में किसी भी प्रकार की दुविधाओं में नहीं फंस सकते हैं। जिस प्रकार से हम ईश्वर के प्रति भक्ति दिखाते हैं, ठीक उसी प्रकार से हमें अपने गुरूओं के प्रति भी भक्ति दिखानी चाहिये। सद्गुरू की कृपा से जीवन में ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है और यदि गुरू की कृपा नहीं रही तो कुछ भी संभव नहीं है। संपूर्ण भारत में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है।
प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरू के आश्रम में बिना किसी फीस के शिक्षा ग्रहण करते थे, तो इसी दिन श्रद्धाभाव से प्रेरित होकर अपने गुरू का पूजन करके उन्हें अपनी भक्ति सामर्थ्यनुसार दक्षिणा देकर जताते थे। आज के समय में भी इसका महत्व कम नहीं हुआ है। पारम्परिक रूप से शिक्षा देने वाले विद्यालयों में सगीत और कला के विद्यार्थियों में आज भी यह दिन गुरू को सम्मानित करने का होता है। इस पावन पर्व पर जगह-जगह विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन किया जाता है और मंदिरों में पूजा-अर्चना के साथ-साथ भंड़ारे का आयोजन भी किया जाता है। कई जगहों पर आज के दिन मेले भी लगते हैं। हम अपने जीवन में कुछ भी कमा लें, लेकिन गुरू का आशीर्वाद हमारे साथ नहीं है तो खजाना भी हमारे लिये कम पड़ेगा। जब तक हमारे गुरूओं का आशीर्वाद हम तक नहीं पहुँचता तब तक सब कुछ अधूरा होता है। हम अपने जीवन में देवी-देवताओं की पूजा तो करते हैं, लेकिन माता-पिता और गुरूओं की पूजा भी अवश्य करनी चाहिये बिना इनके सब कुछ अधूरा रह जाता है, सफल होता व्यक्ति भी बिना गुरू के आशीर्वाद के असफल हो जाता है। गुरू हमारे जीवन से अंधकार को दूर करते हैं। आत्मज्ञान की युक्तियों को बताते हुये गुरू अपने शिष्यों के दिल में निवास करते हैं। गुरू हमारे जीवन में एक प्रकाशमयी ज्योति के समान है, जो हमारे अंदर के अंधकार को मिटाकर उसमें उजाला भर देते हैं। गुरू वह माली हैं जो जीवनरूपी वाटिका को सुरभित करते हैं। गुरू अभेद का रहस्य बताकर भेद में अभेद का दर्शन करने की कला बताते हैं। गुरू ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है। जीवन में हमेशा गुरूओं का सम्मान करना चाहिये। आज के बदलते युग में भी गुरूओं का सम्मान किया जाता है, लेकिन कुछ बदलाव जरूर हो गया है। आज कई लोगों की बिगड़ी मानसिकता उनको गुरूओं के प्रति सम्मान से वंचित कर देती हैं, उन्हें बचपन से ही सही ज्ञान न मिलने के कारण वह गुरू का सम्मान नहीं कर पाते हैं। यदि ऐसे लोगों को बचपन से ही सही ज्ञान दिया जाये तो अपने आप वह गुरूओं का सम्मान करने लगेंगे। बच्चा सबसे पहले अपनी माता को गुरू के रूप में देखता है, यदि माता ही बचपन में बच्चे को सही ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर कर दे तो वह बच्चा फिर हमेशा ही गुरूओं का सम्मान करेगा। जीवन में यदि हम गुरूओं का सम्मान करते हैं तो हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए हमेशा हमें अपने गुरुजनों का सम्मान करना चाहिए, ताकि हमारे जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो सके।
“गुरुब्रह्मा, गुरुविष्णुःगुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरूः साक्षात परम् ब्रहम तस्मै श्री गुरवै नमः।।”