पूर्वांचल का सबसे बड़ा लोक आस्था का महापर्व ‘छठ पूजा ‘

MY BHARAT TIMES, लोक आस्था का महापर्व ‘छठ’ पूर्वांचल का सबसे बड़ा लोकपर्व है। छठ पूजा एक ऐसी पूजा है, जो समाज की कुरीतियों की दीवार को तोड़ कर समानता की मिसाल पेश करती है। इस पूजा में सभी जाति के लोगों की भागीदारी होती है। इस महापर्व में पुरोहित की कोई परंपरा नहीं है। छठ पूजा करने वाले लोग छठी माता से खुद ही जुड़ते हैं। इस पूजा में किसी भी प्रकार के मन्त्रों का भी उच्चारण भी नहीं किया जाता है। छठ पूजा को आज के इस दौर में देखा जाये तो पूरे देश में मनाया जाने लगा है, लेकिन इस पर्व को सबसे ज्यादा बिहार में ही मनाया जाता है। यह पर्व बिहार में ही क्यों अधिक मनाया जाता है, और इसका क्या कारण है, उस पर आधारित एक कहानी इस प्रकार है : –

वैदिक काल में ‘गयासुर’ नामक एक असुर, मध्य भारत के कीकट प्रदेश में रहता था। वह भगवान विष्णु का बहुत बड़ा भक्त था। उसकी शारीरिक आकृति इतनी विशालकाय थी कि जब वह भूमि पर लेटता था तो उसका सिर उत्तर भारत को और दोनों पैर आंध्र प्रदेश क्षेत्र को स्पर्श करते थे। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह था, कि उसका वक्ष या हृदयस्थल बिहार के गया क्षेत्र में पड़ता था। उसके द्वारा भविष्य में होने वाले अनुमानित खतरों को लेकर देवता-गण भयाक्रांत थे। सभी देवतागण, उसके भय से आक्रांत होकर, सहायता हेतु भगवान ब्रह्मा के पास पहुँचे। परंतु भगवान ब्रह्मा ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुये देवताओं को बताया कि गयासुर भगवान विष्णु के महानतम भक्तों में एक है। इसलिये हम उसका कुछ भी नहीं कर सकते। तब सभी सशंकित देवता-गण, भगवान विष्णु के शरण में गये और उन्हें अपनी आशंकाओं से अवगत कराया।

प्रारम्भ में, भगवान विष्णु अपने परम प्रिय भक्त को मारने को लेकर थोड़ा हिचकिचाये। पुनः देवताओं ने भगवान विष्णु को एक सलाह दी, कि वे उन्हें गयासुर के वक्षस्थल पर यानि गया क्षेत्र में उन्हीं के नाम पर एक यज्ञ करने की अनुमति दें। भगवान विष्णु ने देवताओं के इस निवेदन को सहर्ष स्वीकार कर, गयासुर से संपर्क किया। गयासुर जानता था, कि यदि उसके वक्ष पर यज्ञ किया गया तो उसकी मृत्यु निश्चित है। परंतु वह भगवान विष्णु का अदम्य भक्त था, अतः उसने यथाशीघ्र भगवान की याचना को स्वीकृति दे दी। गयासुर से प्रसन्न होकर, भगवान विष्णु ने उसे आशीर्वाद दिया, कि आगामी समस्त कालों में लोग उसके नाम को सदैव याद रखेंगे। साथ ही भगवान ने गयासुर को एक और आशीर्वाद दिया कि -चूंकि यज्ञ का आयोजन गयासुर के वक्ष पर किया जायेगा, अतः यह समग्र क्षेत्र ‘गया’ के नाम से प्रसिद्ध होगा और यह नगर आगामी समस्त कालों में हिंदुओं के पवित्रतम तीर्थ-स्थलों में एक होगा। इस नगर में, विश्व के समग्र क्षेत्रों से लोग पितृपक्ष मास में, अपने पितरों के आत्मा की शांति हेतु पिंड़दान के लिये अवश्य आयेंगे। आज भी लोग पिंड़दान के लिये ‘गया’ जरूर जाते हैं। भगवान विष्णु की अनुमति से उत्साहित देवताओं ने, यज्ञ के लिये योग्य व सक्षम पुरोहित की खोज करना शुरू कर दिया, जो भगवान विष्णु के अदम्य भक्त हों तथा विष्णु नाम से होने वाले यज्ञ को कुशलतापूर्वक प्रतिपादित करा सकें। लेकिन उन्हें असफलता ही हाथ लगी, थक कर सभी देवतागण महर्षि नारद के पास पहुँचे। महर्षि नारद ने उन्हें सलाह दी कि ऐसे योग्य पुरोहित ,उन्हें प्राचीन ईरान के शाक्य-द्वीप नामक स्थान पर मिलेंगे।

शाक्य द्वीप के पुरोहित, या ब्राह्मण नाम की पुष्टि (विष्णु पुराण के 2,4,6,69,71) से की जा सकती है। प्राचीन ईरानी भाषा में मग का अर्थ था – ‘आग का गोला’ या सूर्य। मग शब्द से ही मगध शब्द की उत्पत्ति हुई। देवताओं द्वारा, गयासुर के वक्ष-स्थल पर होने वाले यज्ञ के लिये सात योग्य पुरोहितों को ‘गया’ लाया गया। इन सातों पुरोहितों के वंशज, आज भी मगध क्षेत्र में शकलद्वीप ब्राह्मण के नाम से जाने जाते हैं। इसका उल्लेख भीष्म पर्व 12,33/भविष्य पुराण, ब्राह्मण पुराण 139,142 में मिलता है। सभी सातों ब्राह्मण-गण समय के साथ धीरे-धीरे गया क्षेत्र तथा इसके निकटवर्ती जिलों में बस गये। जिसकी पुष्टि 1937-38 ई॰ के गया जिला के गोविंदपुर अभिलेख से होती है। मग ब्राह्मणों की सूर्य-उपासना से प्रभावित होकर मगध क्षेत्र में मूल निवासियों ने भी सूर्य-आराधना व पूजा-पाठ शुरू कर दी। आदित्यनाथ सूर्य देव प्रत्यक्ष देवता हैं एवं सूर्य-षष्ठी (छठ) की आराधना का वैज्ञानिक महत्व है। आगामी कालों में सूर्य-उपासना की यह प्रचलित पद्धति ‘छठ महापर्व’ के नाम से हमारे सामने है।

सूर्य-उपासना की पद्धति सरल है, व आम जन भी इसे सुलभता से कर सकते हैं। मगर व्रत अत्यंत कठिन होता है, और शुद्धता पर विशेष ध्यान की आवश्यकता होती है। पूजा के विधान को संपादित कराने के लिये किसी पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती है । आगामी कालों में सूर्य-उपासना का यह महापर्व बिहार के समस्त क्षेत्रों में लोकप्रिय हो गया। जिसका मुख्य कारण था-छठ व्रतियों को मिलने वाला दिव्य फलाफल। जिसका लाभ छठव्रती के साथ उसके परिवार को भी मिलता है। मगध क्षेत्र से शुरू होने वाला यह पर्व सम्पूर्ण बिहार का महापर्व बन गया। सभी सातों शकलद्वीप ब्राह्मणों ने सम्पूर्ण मगध क्षेत्र में सात विभिन्न स्थानों पर सूर्य मंदिरों का निर्माण कराया। जिसमें ‘देव’, ‘उल्लार’, ‘अंगोरी’, ‘गया’, और ‘पंडारक’(पुण्यार्क) प्रसिद्ध हैं। छठ देव की पूजा विशेष फलदायी होती है। पितृ-तीर्थ ‘गया’ के पंडा समाज स्वयं को ‘अग्निहोत्र’ ब्राह्मण भी कहते हैं। यहाँ भी अग्नि को इसके मुख्य स्त्रोत सूर्य से जोड़ कर देखा जा सकता है। छठ महापर्व में ‘ उषा’ और ‘प्रत्यूषा’ की पूजा सूर्य की उपासना में की जाती है। ‘उषा’ का संबंध सूर्योदय की प्रथम रश्मि से है, वहीं ‘प्रत्यूषा’ का संबंध अस्तांचल सूर्य की अंतिम रश्मि से है। उषा एवं प्रत्यूषा दोनों छठी मैया के नाम से जानी गई और पर्व का नाम सूर्य षष्ठी के अपभ्रंश छठी के कारण पड़ा। इसी से छठव्रती उगते व डूबते सूर्य की उपासना करते हैं। कहा जाता है कि भगवान कृष्ण के पुत्र ‘शम्ब’ और राजा ‘प्रियव्रत’ मगध क्षेत्र में छठ व्रत करते थे। उन्हें इसका लाभ भी मिला।

छठ पर्व में डूबते सूर्य को दिया जाता है अर्घ्य –

उगते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा और भी पूजा में है। लेकिन छठ पूजा एक ऐसा त्योहार है, जिसमें डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। छठ पूजा की बड़ी खासियत यह भी है कि इसमें उगते सूर्य को तो जल अर्पण करते ही हैं, डूबते सूर्य को भी अर्घ्य देते हैं। छठ पूजा की यह समानता छठ घाट पर भी देखने को मिलती है।

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